सूरदास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा महात्मा कवि सूरदास के जीवन, भक्ति और साधना के साथ कृष्ण मार्गी आचार्य वल्लभाचार्य के ज्ञान मीमांशा का अन्वेशणात्मक विश्लेषण है। भक्ति काल ही नहीं हिन्दी साहित्य परम्परा में कृष्ण भक्ति मार्ग के अन्यतम कवि थे महात्मा सूर। बिना आंखों के जितना बारीक वर्णन सूरदास ने किया उतना कोई दूसरा कवि नहीं कर सका। आचार्य शुक्ल ने उनके वर्णन के सम्बन्ध में लिखा है कि “सूर का संयोग-वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम-संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता। राधाकृष्ण के रंग-रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना उमंगों का अक्षय भंडार प्रतीत होता है।” सूरदास कृष्ण भक्ति के माध्यम से जीवन-जगत के संयोग-वियोग का वर्णन तो कर ही रहे थे साथ ही निर्गुण-सगुन के द्वंद्व का जो प्रवाह चल रहा था उसकी भी गहरी पड़ताल करते हैं। ज्ञान पर भक्ति और प्रेम को श्रेष्ठ बता कर सूरदास ने जीवन के उस सौन्दर्य की प्रतिष्ठा की है, जिसमें व्यर्थ के विकार नहीं होते, बस जीवन एक भरपूर जीवन होता है। आचार्य शुक्ल ने भी सूर के माध्यम से भक्ति की महता को इस पुस्तक के माध्यम से स्थापित किया है। साथ ही साहित्य का जो संस्कार है उसके पक्ष में शुक्ल जी लिखते हैं कि “साम्प्रदायिक परिभाषाओं के चक्कर में साहित्यिक दृष्टि खो न देनी चाहिये।” चूँकि साहित्य का साहचर्य ही समाज को उन्नत व परिष्कृत करता है।